क्या आपने कभी हिमाचल प्रदेश के रामपुर बुशहर में हुए ऐतिहासिक दूम आंदोलन के बारे में सुना है? यह एक ऐसा विद्रोह था जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज, इस पोस्ट में, हम रामपुर बुशहर के दूम आंदोलन के कारणों, इसकी प्रमुख घटनाओं और इसके प्रभावों की पड़ताल करेंगे। यह कहानी बहादुरी, बलिदान और राष्ट्रवाद की भावना की एक प्रेरक गाथा है।
Doom Movement of Rampur Bushahr
वर्ष 1859 में रामपुर बुशहर में किसानों के द्वारा विद्रोह की शुरुआत की गई। इस समय सारी रियासत में असन्तोष व्याप्त था क्योंकि इस रामपुर बुशहर के दूम आन्दोलन का मुख्य कारण ‘नकदी भूमि लगान’ था। यहां किसान अपनी उपज का पांचवां भाग राज्य को देते थे। किसान नकद भूमि लगान देने में असमर्थ थे। इन्हीं कठिनाइयों के अनुरूप अनेक अहिंसात्मक आन्दोलनों की शुरुआत हुई। इन आन्दोलनों का मुख्य केन्द्र रोहड् क्षेत्र था। यहां पर दूम के नियमों के अनुसार ही परिवारों व पशुओं को लेकर हर किसान को जंगल की तरफ जाना था। यहां सारे गांव खाली हो गये। खेती आदि भी बन्द कर दी गई तथा लोगों ने सामूहिक विरोध करना शुरू कर दिया।
फलस्वरूप प्रशासन का पूरा ध्यान इन व्यक्तियों व किसानों की तरफ गया। इस आन्दोलन से बुशहर में भी अशान्ति फैल गई। भूमि के लगान के रूप में राज्य की आय थी, वह भी बन्द हो गई व रियासत में विद्रोह होने के कारण ही ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप भी बढ़ गया। ‘शिमला हिल स्टेट्स’ के सुपरिन्टेन्डेन्ट जी.सी. बर्न्स ने बुशहर रियासत के राजा शमशेर सिंह से विचार-विमर्श करने के पश्चात् आन्दोलनकारियों की तीन मांगों को मान लिया।
यह तीन मांगें निम्नलिखित थीं-
(i) उस समय लगान की व्यवस्था को समाप्त करना।
(ii) लगान की वसूली परम्परागत तरीकों से करना।
(iii) खानदानी वजीरों को पुराने रीति-रिवाजों के अनुसार ही सत्ता का अधिकार सौंपना।