• शिवरात्रि-
यह त्योहार फाल्गुन मास (फरवरी) के कृष्णपक्ष के उत्तरार्द्ध के चौदहवें दिन मनाया जाता है। कुछ लोग इस दिन निर्जला व्रत रखते हैं। बच्चे इस दिन कारागोरा और पाजा नामक झाड़ियों की कोमल टहनियाँ घर के दरवाजे पर लगाते हैं।
घर के बने पकवान को बांस के तिकोने पात्र किल्टा में रखकर संबंधियों और विवाहित लड़की के ससुराल में दिया जाता है। बेल पत्तों का हार जिसे ‘चंदवा’ कहते हैं उसे एक रस्सी से छत से बांधा जाता है।
• भुण्डा उत्सव-
‘भुण्डा’ उत्सव ब्राह्मणों का. ‘शान्द’ राजपूतों का तथा ‘भोज’ कोलियो का त्योहार है। भुण्डा उत्सव बारह वर्ष के बाद मनाये जाते हैं। निरमण्ड का भुण्डा उत्सव सबसे प्रसिद्ध है। भुण्डा का संबंध परशुराम जी की पूजा से है। परशुराम पूजा पाँच स्थानों पर होती है, ये स्थान है. मण्डी में काओ और ममेल, कुल्लू में निरमण्ड एवं नीरथ तथा ऊपरी शिमला में दत्तनगर।
यह नरमेध की तरह होता है। यह उत्सव खशों की नागों और बेड़ों पर जीत का सूचक है। इसमें पर्वत की चोटी से नीचे तक रस्सा बाँध दिया जाता था जिस पर मनुष्य फिसल कर नीचे आता था। वर्तमान में बकरी को पटरे पर बैठाकर नीचे की ओर धकेला जाता है। ‘बेडा’ जाति के लोग ‘मूंज’ इकट्ठा कर 100 से 150 मीटर लम्बी रस्सी तैयार करते हैं।
निश्चित दिन पर ‘बेड़ा’ स्नान करता है। पुजारी उसकी पूजा करते हैं और उसे देवता माना जाता है। पर्वत की चोटी पर रस्सी से बँधे टुकड़े पर ‘बेड़ा’ को बैठा कर फिसलाया जाता था। पुजारी के संकेत पर उसे थमने वाली रस्सी काट दी जाती थी।