हिमाचल प्रदेश में राज्य निर्माण सम्बन्धी राजनीति
[Politics of Statehood in Himachal Pradesh
हिमाचल प्रदेश में अलग राज्य की राजनीति पर चर्चा करें। (Discuss the Politics of separate statehood in Himachal Pradesh.)
हिमाचल राज्य के निर्माण की विभिन्न परिस्थितियाँ कौन-कौन सी हैं? (Explain the different circumstances leading to statehood of Himachal State.)
हिमाचल प्रदेश के विकास की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के क्रम विकास का विवेचन कीजिए।
(Discuss the evolution of political economy of development of Himachal Pradesh.)
उत्तर: भारत को 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्ति हुई तथा 15 अप्रैल, 1948 में हिमाचल प्रदेश राज्य का गठन हुआ। स्वतन्त्रता से पूर्व वर्तमान हिमाचल प्रदेश की भौगोलिक प्रवृत्तियों का एक ऐतिहासिक सन्दर्भ था। इस क्षेत्र में अनेक छोटी-बड़ी रियासतें तथा ठकुराइयाँ स्थित थीं तथा हर रियासत के अपने संवैधानिक नियम तथा कानून थे, जोकि स्वतन्त्रता पश्चात् भारत गणराज्य के संवैधानिक विकास का भाग बने। देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी हिमाचल प्रदेश में अनेक रियासतों का प्रभुत्व बना रहा। इन देशी रियासतों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से देश की अखण्डता व एकता हेतु अनेक प्रयास किये। इस तरह एक पूर्ण व पृथक् राज्य को निर्मित करने से पूर्व हिमाचल प्रदेश में देशी रियासतों का बोलबाला बढ़ता रहा। यह रियासतें अपने-अपने संगठनों का निर्माण करने लगीं तथा यह संगठन आगे जाकर प्रजामण्डल के रूप में बदल गये। यहां पर मुख्य बात यह थी कि प्रजामण्डल आन्दोलन को देश के कांग्रेसी नेताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।
अतः प्रजामण्डल का मुख्य उद्देश्य विदेशी सत्ता की समाप्ति करके राज्यों में जनता प्रतिनिधि की सरकारें स्थापित करना हो गई। वर्ष 1938 में लुधियाना में ऑल इण्डिया स्टेट पीपुल्स कांफ्रेंस की सभा हुई, जिससे पहाड़ी क्षेत्रों की रियासतों में प्रजामंडल स्थापित करने का निर्णय लिया गया। साथ ही साथ जन जागरण की उन्नति पर भी विशेष ध्यान दिया गया तथा इसकी जिम्मेदारी श्री एस.एस. धवन को सौंपी गई। इस सम्मेलन का विशेष फायदा यह हुआ कि पहाड़ी रियासतों में प्रजामंडल आन्दोलनों को बल मिला तथा अनेक प्रजामंडलों की स्थापना हुई। इन प्रजामंडलीय आन्दोलनकारियों के आपस में संबंध बने रहे इसके लिए शिमला पहाड़ी राज्य हिमाचल रियासती मंडल की स्थापना की गई।
इस तरह का आन्दोलन होने के कारण तत्कालीन सेवा में जो नरेश थे, उनके बीच खलबली मची। इन नरेशों ने एक षड्यन्त्र के तहत प्रजामंडल आन्दोलनों को कुचलने के अनेक प्रयास किया व कई नेताओं की जमीन जायदाद व अन्य सम्पत्तियों को जब्त भी किया गया तथा इन्हें यातनाएं भी दी गईं। राजाओं व नरेशों का यह षड्यन्त्र गहराता गया। जैसे-जैसे इनके अत्याचार बढ़ते गए, वैसे-वैसे ही प्रजामंडल आंदोलन भी तीव्र गति पकड़ता गया। 13 जुलाई, 1939 में शिमला पहाड़ी राज्य हिमालय रियासती प्रजामंडल के नेता श्री भागमल सीठा की अध्यक्षता में शिमला में ही धामी रियासत के स्वयं सेवकों ने एक बैठक की, तथा इस बैठक में निम्नलिखित मुख्य प्रस्तावों को रखा गया-
1. सरकार का गठन जनता के प्रतिनिधियों के चुनाव के द्वारा किया जाये।
2. कर को आधा माफ किया जाये।
3. दमन चक्रों की समाप्ति की जाये व
4. धामी प्रजामंडल के ऊपर जो भी इल्जाम लगाये जा रहे हैं, उन सबको समाप्त कर हटा दिया जाये।
यह चार प्रस्ताव धामी के राजा के समक्ष रखे गये व उन्हें यह चेतावनी भी दी गई कि यदि 16 जुलाई तक इन प्रस्तावों पर विचार करके कुछ सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये तो जनता सत्याग्रह पर उतर जायेगी। राजा ने एक चाल चलते हुए इस पस्ताव का कोई उत्तर तो दिया नहीं, साथ ही जो संदेशवाहक यह प्रस्ताव लाया था उसे ही गिरफ्तार कर लिया। 16 जुलाई, 1939 को एक जन प्रतिनिधि मंडल भागमल सौठा के नेतृत्व में धामी हेतु रवाना हुआ। यहां पर भी साजिश के चलते रियासत की सीमा पर धणाहटी के निकट राजाओं की पुलिस ने इन्हें रोकने के प्रयास किये। जब यह नहीं रुके तो इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा राजधानी हलोग ले जाया गया।
जब इन नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो इनके साथ जनता भी चल पड़ी। हलोग से कुछ मीटर की दूरी पर कुछ जनता पूर्वसूचना के आधार पर एकत्र हो गई थी। जनसमूह भी नारे लगाते हुए हलोग के राजाओं के महल तक गये। वहां पर राजा इतने व्यक्तियों तथा जन समुदाय को देखकर घबरा गया व उसने फायरिंग करवा दी। इसके फलस्वरूप दो व्यक्तियों की मृत्यु हुई व अनेक घायल हो गये।
इस घटना की पूरे देश में बहुत निन्दा हुई तथा इसकी जांच की मांग किये जाने पर जवाहरलाल नेहरू जी ने महात्मा गांधी से आज्ञा मांगी तथा पंजाब के प्रसिद्ध वकील श्री दुनी चन्द्र को इस घटना की जांच करने हेतु भेजा। जब दुनी चन्द्र ने पहाड़ी राज्यों में होने वाले अत्याचारों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जब अवगत कराया तब राष्ट्रीय नेताओं का ध्यान जनता पर होने वाले अत्याचारों की तरफ गया तथा इसके निष्कर्ष स्वरूप जन आन्दोलन और तीव्र हो गये। इस तरह सिरमौर के राजा ने भी जनता के ऊपर अपना दमनात्मक प्रभाव रखा व 1937 में चौधरी शेरजंग जोकि अहमदगढ़ की जेल से मुक्त हुए थे, उन्होंने भी सिरमौर पर होने वाले अत्याचारों को देखते हुए सिरमौर की बागडोर अपने हाथ में थाम ली।
चौधरी शेरजंग पहाड़ों के नेताओं के राजगुरु के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके मुख्य सहयोगियों में श्री शिवानन्द रमोल, डॉ. यशवंत परमार तथा उनके भाई का नाम मुख्य था। धीरे-धीरे राजा राजेन्द्र सिंह ने इन नेताओं को अपनी रियासत से बाहर कर दिया तथा इनकी जितनी जमीन जायदाद व सम्पत्तियाँ थीं, वह अपने कब्जे में कर लीं।
इस दिशा में सन् 1942 में अंग्रेजों के विरोध में “भारत छोड़ो आन्दोलन” के नाम से एक आन्दोलन की शुरुआत की गई। इस आन्दोलन का निशाना मुख्यतः अंग्रेज थे। साथ ही सिरमौर रियासत में एक और शक्तिशाली आन्दोलन की शुरुआत हुई, जिसे “पझौता आन्दोलन” के नाम से जाना गया। प्रजामंडल के कुछ दबंग नेताओं ने नाहन जाकर राजा को उसकी प्रजा पर कर्मचारियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों तथा तानाशाही आदि के विषय से अवगत कराया।
परंतु राजा ने इन नेताओं की बात पर कुछ कदम उठाने की जगह पर लोगों को मारने व कुचलने हेतु अपनी सेना को भेज दिया। लोग पहाड़ों की चोटियों में छुप गये। दो महीने तक यह अत्याचार का सिलसिला चलता रहा व नेताओं तथा जनता ने सेना का पुरजोर मुकाबला किया। इस आन्दोलन में मुख्यतः वैद्य सूरत सिंह ने, मियां घुघु, बस्ती राम पहाड़ी, चेतराम वर्मा आदि ने भाग लिया।
कुछ समय पश्चात् सेना ने 69 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया व उन पर मुकदमा चलाया गया तथा 50 व्यक्तियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई। धीरे-धीरे कश्मीर से गढ़वाल क्षेत्र तक के पहाड़ी क्षेत्रों तक प्रजामंडल की यह गतिविधियाँ फैल गई तथा प्रत्येक पहाड़ी राज्य को एक प्रशासनिक इकाई में बांधने के लिए “हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल कौंसिल” की स्थापना की गई। इसका मुख्य कार्यालय शिमला में बनाया गया। मंडी में एक बैठक के तहत 8 मार्च, 1946-10 मार्च, 1946″ प्रजामंडलों के प्रतिनिधियों की एक बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें लगभग 48 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसकी अध्यक्षता का सौभाग्य आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सेनानी कर्नल जी. एस. ढिल्लों को प्राप्त हुआ। इस सभा में एक प्रस्ताव रखा गया कि प्रत्येक पहाड़ी रियासत में प्रतिनिधियों की
एक निर्वाचित संस्था बनाई जाये जिससे कि राज्यों में मन्त्रियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति करने के अधिकार इस संस्था को सौंप दिये गये। परंतु यहां तक आने के बाद भी पहाड़ी राजाओं तथा नेताओं के मध्य संघर्ष चलता ही रहा। ज्यादातर शासकों ने दोहरी नीति को अपना लिया। इन्होंने एक तरफ केन्द्रीय नेताओं को यह आश्वासन प्रदान किया कि इनके राज्य में कुछ अशान्ति नहीं है, वहीं दूसरी ओर राज्यों में जनता तथा जननेताओं को दबाना शुरू कर दिया। इससे जनता का आक्रोश फिर धीरे-धीरे बढ़ने लगा। अतः पुनः आन्दोलनों की शुरुआत हेतु प्रयास किये जाने लगे।