हिमाचल प्रदेश में जन्म से लेकर विवाह तक की रस्में ?

Rituals from birth to marriage in Himachal Pradesh

गर्भावस्था  गर्भवती महिला को जलते हुए स्थान, नदी, वन अथवा सुनसान जगह पर जाने की मनाही होती है। उसे मृत व्यक्ति का चेहरा नहीं देखना होता। गर्भावस्था में उसे सूर्य अथवा चन्द्रग्रहण को देखने की मनाही होती है।

 

जन्म के समय-  शिशु के जन्म के समय गर्भवती स्त्री को घर की निचली मंजिल में रखा जाता है। प्रशिक्षित दाइयों के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों में अनुभवी वृद्ध महिलाएँ शिशु जन्म में सहायता करती हैं। बच्चे और माँ को जोड़ने वाली नाल को दाई चाँदी के सिक्के अथवा आभूषण से काटती है। प्रसव के बाद माँ को घी और गुड़ से बना मिश्रण ‘गुरनी’ पीना होता है। लड़के के जन्म की घोषणा मित्रों और संबंधियों को मुड़ा बाँटकर की जाती है।

पूर्वी हिमाचल में जिस घर में लड़के का जन्म होता है, वहाँ ढाकी और तूरी जाति के गवैये शबद गाते हैं। नवजात शिशु के जन्म की सूचना देने के लिए दूब और एक रुपया मामा के घर भिजवाया जाता है। घरों में पुत्र जन्म पर नाल छेदन से पूर्व अनार या सुवर्णादि की कलम से जिह्वा पर ॐ शब्द लिखने का प्रचलन है जिसे मेघाजनन संस्कार कहा जाता है। जन्म के छठे दिन बालक की दीर्घायु के लिए छठ पूजन का विधान है जिसमें भगवती बन्टी (भेई) विधमाता की पूजा की जाती है।

 

 

 

सूतक/गून्तर/वसूठन-     माता का सूतक (अपवित्रता) बच्चे के जन्म से दस दिन बाद तक मानी जाती है। छठ पूजन (षष्टी महोत्सव) को छोड़ सभी का कार्य सूतक में वर्जित माने जाते हैं। बच्चे की माँ के हाथ से भोजन अथवा जल ग्रहण इन दस दिनों में नहीं किया जाता। (गौमूत्र) गून्तर या दसूठन की रस्म बच्चे के जन्म के दसवें दिन आयोजित होती है जिसमें माँ के सारे वस्त्र धोए जाते हैं और पूरे घर में गौमूत्र एवं गंगाजल पानी में मिलाकर छिड़का जाता है। परिवार के सभी सदस्य एवं माता गौमूत्र को चखती हैं। यह कार्य माता की पवित्रता का सूचक है। इस दिन पारिवारिक पुरोहित को बुलाकर बालक की जन्मपत्री तैयार की जाती है।

 

 

नामकरण संस्कार-   बच्चे का नामकरण जन्म के दस दिन पश्चात् किया जाता है। पुजारी, जन्म कुण्डली अनुसार बच्चे के नाम का पहला अक्षर बताता है। नामकरण के समय गुड़ और प्रसाद, भूने चावल और गेहूँ के दाने का मुड़ा लोगों और संबंधियों में बाँटा जाता है। लाहौल में नामकरण एक वर्ष के भीतर किया जाता है। निम्न जातियों में खासतौर पर कोलियों में जन्म के महीनों अथवा सप्ताह के दिनों के आधार पर नामकरण किया जाता था। जैसे बुध को बुधिया, सोमवार को सवरू, जेठ को जेतू, चैत को चैतू आदि।

 

किन्नौर के लोग अपने नाम के पीछे ‘नेगी’ का इस्तेमाल करते हैं। शिमला जिला में व्यक्ति के वंशजों का नाम उसके नाम पर भी पड़ जाता है। जैसे गंगा राम के बेटों को गांगटा कहा जाता है। यहाँ पर ‘टा’ का अर्थ पुत्र अथवा वंशज के लिए प्रयोग होता है। जब किसी के वंशज विभिन्न स्थानों पर चले जाते हैं तो वह नया उपनाम धारण कर लेते हैं। जैसे गंगटा परिवार में रामलाल अलग जगह बसने पर उसके वंशज ‘रामटा’ कहलाने लगते हैं। कई क्षेत्रो में ‘टा’ के स्थान पर ‘एक’ शब्द प्रयोग होता है। यहाँ रामटा को ‘रमैक’ कहा जाता है। ‘बालक राम’ के वंशज ‘बलेक’ कहलाते हैं।

 

अन्नप्राशन संस्कार- शिशु के छठे माह में अन्न प्राशन करने का विधान है जिसे अन्न देना कहते हैं। बच्चे को जौ या गेहूँ का सत्तू शहद के साथ चटाया जाता है।

 

 

मुण्डन संस्कार- शिशु के जन्म के तीसरे या पाँचवें वर्ष में बच्चे का मुण्डन करने का विधान है। कई बार प्रथम वर्ष में भी इस संस्कार को संपन्न किया जाता है। शुभ मुहूर्त में नाई कुलदेवी के मंदिर में बाल काटता है। कई जगह मामा की गोद में बाल कटवाए जाते हैं। बालों को पवित्र जल में प्रवाहित किया जाता है। मुण्डन संस्कार को ‘जट्ट’ भी कहा जाता है।

 

 

अक्षरारम्भ संस्कार- पाँचवें वर्ष के उत्तरायण में यह संस्कार किया जाता है जिससे अक्षरज्ञान प्रारंभ होता है।

 

 

यज्ञोपवीत- यह जनेऊ (यज्ञोपवीत) डालने की प्रथा है। इसके साथ समावर्तन और वेदारंभ भी होता है। यह संस्कार विद्या अध्ययन के लिए जाने वाले बालक में 8वें, 10वें और 12वें वर्ष में होता था।

 

 

(ii) विवाह – परिभाषा-  विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह संबंध है जिसे प्रथा या कानून स्वीकार करता है।

 

(1) सगाई-

ढेरी-  मैदानों में लड़की वाले दहेज देते हैं, लेकिन पहाड़ों में लड़‌के का पिता, लड़की के पिता को विवाह के खर्चे के लिए धन देता है। यह राशि ‘ढेरी’ कहलाती है।

 

रबारू- कन्या के घर विवाह की बात चलाने वाले को ‘रबारू’ कहा जाता है। रबारू दोनों पक्षों को जानने वाला होता था।

 

सोठा-  मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के लोगों में ‘सगाई’ की रस्म ‘सोठा’ कहलाती है। चम्बा में इसे ‘बन्धा देना’ और मण्डी में इसे ‘बरीना’ कहते हैं। काँगड़ा में दोनों पक्षों द्वारा रिश्ता स्वीकार करने को ‘नाता’ हो जाना कहते हैं। लड़के का पिता पुजारी को कुछ आभूषण, रुपये देकर लड़की के पिता के पास भेजता है जिसे ‘सोठा’ कहा जाता है। सिरमौर में लड़के वाले, लड़की वालों को सगाई के अवसर पर एक किलो घी और शक्कर भेजते हैं जिसे यदि लड़की वाले स्वीकार कर लेते हैं तो सगाई को पक्का माना जाता है।

 

ब‌ट्टा-सट्टा (अदला-बदली) सगाई या मँगनी की इस विधि में दो परिवार रहते हैं जिसमें एक परिवार का भाई अपनी सगी या चचेरी बहन का विवाह अपनी होने वाली पत्नी के भाई या चचेरे भाई से करता है।

 

अट्टा-सट्टा–  इसमें एक परिवार दूसरे को दूसरा तीसरे को और तीसरा चौथे को लड़की देने का वायदा करता है। यहाँ पर विवाह श्रृंखला रहती है।

हिमाचल प्रदेश में विवाह के प्रकार ?

Author: RAM BHARDWAJ