Establishment of Temporary Himachal Government?
हिमाचल प्रदेश की सरकार की अस्थायी रूप से स्थापना हेतु अनेक प्रयास किये गये। इसका मुख्य कारण था कि देशी रियासतों के चलते हिमाचल प्रदेश पर सामंतशाही वर्चस्व का शासन था। परंतु साथ ही साथ यहां पर जन प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के भी अनेक प्रयास किये जाते रहे। इसी दिशा में 26 जनवरी, 1948 ई. में हिमाचल प्रदेश क्षेत्रीय परिषद् की सभा हुई, जिसमें हिमाचल अस्थायी सरकार कायम करने हेतु प्रस्ताव रखा गया व इस पर विचार विमर्श हुआ। इस अस्थायी सरकार का प्रधान सिरमौर के शिवानन्द रमोल को बनाया गया तथा इसके प्रमुख सदस्य विलासपुर के सदाराम चन्देल, सुकेत के मुकुन्द लाल तथा ऑल इंडिया स्टेट ऑफ पीपुल्स कान्फ्रेंस ने इन रियासतों के भारत के साथ विलयीकरण पर बल दिया।
परंतु पहाड़ी रियासतों के राजाओं को यह उम्मीद थी कि वह अपनी सत्ता का निर्माण कर सकते हैं, इसलिए 1948 में इन राजाओं ने एक संविधान का निर्माण किया। जिसमें यह प्रावधान रखा गया कि प्रत्येक रियासतों को एक संघ के अधीन रखा जायेगा। परंतु यह प्रावधान सिर्फ प्रावधान बनकर ही रह गया, इसे कार्य रूप प्रदान नहीं किया गया। अतः प्रजामंडल के सेवकों ने मिलकर एक संविधान का निर्माण किया व अहिंसात्मक रूप से शासकों के विलयीकरण के कागजातों पर हस्ताक्षर करने हेतु इन शासकों को मजबूर करने की एक योजना बनाई।
जनशक्ति का अत्यधिक दबाव होने के कारण ही 15 अगस्त, 1947 को सबसे पहले शासक ठियोग के ठाकुर ने ‘राजसत्ता’ को सूरज सिंह प्रकाश के नेतृत्व में जन प्रतिनिधियों को सौंप दिया। अन्य राजाओं ने साजिश करते हुए सत्ता को सरलता से न देने के अनेक प्रयास किये परंतु इनको इसमें सफलता प्राप्त नहीं मिली। राजाओं के इस विरोधात्मक दृष्टिकोणों को देखते हुए 8 फरवरी, 1948 में नेताओं तथा जनता के मध्य एक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में यह निर्णय लिया गया कि रियासतों का विलयीकरण किया जाये व यह कार्य सत्याग्रह के द्वारा ही सम्पन्न किये जा सकते हैं।
अतः सत्याग्रह करने हेतु सुकेत रियासत का चुनाव किया गया। सुकेत रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह को यह संदेश भेजा गया कि अगर वह 48 घन्टों में अपनी सत्ता को जन प्रतिनिधियों को नहीं सौपेंगे तो 18 फरवरी से सत्याग्रह की शुरुआत की जायेगी। परंतु राजा लक्ष्मण सिंह ने इस सूचना/संदेश का कुछ भी स्वाभाविक उत्तर नहीं दिया। अतः 18 फरवरी, 1948 को 1000 स्वयं सेवकों ने एक जत्थे का निर्माण पद्मदेव की अध्यक्षता में किया।
यह जत्था तत्तापानी से सुन्दर नगर हेतु रवाना हुआ। सुकेत की सेना पुलिस भी इसका विरोध नहीं कर पाई। इस जत्थे ने इस दिन ही शाम तक करसोग पर अपना हक जमा लिया। इस जत्थे में ज्यादातर आम जनता शामिल थी। इस जत्थे ने 22 फरवरी को जयदेवी पर भी अपना अधिकार जमा लिया। राजा लक्ष्मण सिंह ने भारत सरकार से सहायता मांगी तथा भारत सरकार ने रियासत को पंजाब में विलय करने के आदेश प्रदान किये। राजा ने विलय पत्रों पर अपने हस्ताक्षर किये व जालन्धर के जिला मजिस्ट्रेट को सुन्दर नगर भेजा गया। धीरे-धीरे सभी राज्यों ने एक-एक करके विलय पत्रों पर अपने हस्ताक्षर किये।
यहां कांगड़ा-कुल्लू-लाहौल स्पीति की परिस्थितियाँ शिमला के पहाड़ी राज्यों से अलग थीं। यह परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिसने एक क्षेत्र एक जिले के रूप में प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के शासन में था। इस प्रकार यहां की जनता को सामंतशाही के विरोध में कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। स्वतन्त्रता के बाद ये सभी क्षेत्र पंजाब प्रान्त में शामिल हो गये। इस तरह 1-11-1966 को ये क्षेत्र पहाड़ी प्रदेश हिमालय में शामिल हो गये।
26-28 जनवरी, 1948 को इस प्रदेश का नाम तय करने का फैसला लिया गया व इसका नाम “हिमाचल प्रदेश” रखा गया। यह नाम पहाड़ी रियासतों के शासकों के प्रतिनिधियों व प्रजामंडल के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में तय किया गया। यह सम्मेलन बघाट के राणा दुर्गा सिंह की अध्यक्षता में सोलन में हुआ। इस तरह अलग-अलग रियासतों के विषय के साथ ही 15 अप्रैल, 1948 को “हिमाचल प्रदेश” का निर्माण हुआ।
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